Salakaar Review: दिलचस्प विषय पर हल्की और एकतरफा सीरीज, कमजोर लेखन-निर्देशन ने अच्छी कहानी का किया बेड़ागर्क

Salakaar review on Jio Hotstar. Photo- Instagram
सीरीज: सलाकार 
कलाकार: नवीन कस्तूरिया, मौनी रॉय, पूर्णेंदु भट्टाचार्य, सूर्या शर्मा आदि। 
निर्देशक: फारुक कबीर 
लेखक: स्पंदन मिश्रा, श्रीनिवास अबरोल, स्वाति त्रिपाठी 
प्लेटफॉर्म: जिओ हॉटस्टार 
अवधि: लगभग 30 मिनट के 5 एपिसोड्स 
वर्डिक्ट: ** (2 स्टार)

मनोज वशिष्ठ, मुंबई। Salakaar Review: जिओ हॉटस्टार पर शुक्रवार को रिलीज हुई स्पाइ सीरीज कॉन्सेप्ट के स्तर पर एक दिलचस्प कहानी की उम्मीद जगाती है, मगर जब वो कॉन्सेप्ट कहानी का विस्तार लेकर स्क्रीनप्ले तक पहुंचता है तो ढेर हो जाता है।

भारत के सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल के पाकिस्तान में रहकर जासूसी करने के किस्सों से प्रेरित 5 एपिसोड्स की सीरीज को देखते हुए महसूस होता है कि इसे बेहतरीन स्पाइ थ्रिलर बनने की सम्भावनाओं पर कमजोर लेखन-निर्देशन ने कितना पानी फेरा है।

सीरीज में रोमांच से भरपूर दृश्यों की कमी नहीं है, मगर उस रोमांच को एक मुकम्मल अंजाम तक पहुंचाने में सीरीज असफल रहती है। नतीजतन, सलाकार सब कुछ होते हुए भी एक सतही सीरीज बनकर रह गई है, जो ऑपरेशन ऑप्स और द फैमिली मेन के दौर में बचकानी लगती है।

क्या है सलाकार की कहानी?

सीरीज की कथा भूमि ज्यादातर पाकिस्तान और कालखंड सत्तर के दशक के आखिरी साल हैं। 1978 में जनरल जिया उल हक की तानाशाही सरपरस्ती में पाकिस्तान अपना पहला परमाणु बम बनाने की कोशिश में जुटा है। चीन जरूरी तकनीक और अन्य मदद मुहैया करवा रहा है।

भारत सरकार को डर है कि अगर पाकिस्तान ने परमाणु बम बना लिया तो जिया उल हक उसका सीधा इस्तेामल भारत पर करेगा, जिसका मुकाबला करने की ताकत भारत में नहीं है। बेहतर है कि पाकिस्तान को परमाणु बम बनाने ही ना दिया जाए।

पाकिस्तान के न्यूक्लियर प्लान में पलीता लगाने के लिए आइबी के जासूस अधीर दयाल (कोडनेम- सलाकार) को भारतीय उच्चायोग का अधिकारी बनाकर पाकिस्तान भेजा जाता है, जहां वो पहले से मौजूद भारतीय जासूसों की मदद से न्यूक्लियर प्लांट का पता लगाकर उसे तबाह करता है।

2025 में जिया उल हक का पोता अशफाकउल्लाह, जो आर्मी में कर्नल है, अपने दादा के सपने को पूरा करने में जुटा है। देश के रक्षा सलाहकार बन चुके अधीर दयाल के सामने एक बार फिर पाकिस्तान के न्यूक्लियर सपने को तोड़ने और अपनी जासूस सृष्टि चतुर्वेदी को सुरक्षित निकालने की जिम्मेदारी है।

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कैसा है स्क्रीनप्ले और संवाद?

इस कहानी को निर्देशक फारुक कबीर ने स्पंदन मिश्रा, श्रीनिवास अबरोल और स्वाति त्रिपाठी के साथ मिलकर लगभग 30 मिनट अवधि के पांच एपिसोड्स में फैलाया है, यानी लगभग ढाई घंटे की पूरी फिल्म के बराबर सीरीज की लम्बाई है और यही एक खूबी है, जो इस सीरीज को थोड़ा-बहुत देखने लायक बनाता है।

सीरीज दो टाइमलाइन 1978 और 2025 में चलती है। पहली टाइमलाइन में मौजूदा सुरक्षा सलाहकार अधीर दयाल के पाकिस्तानी मिशन को दिखाया जाता है, जबकि दूसरी टाइमलाइन भी पाकिस्तान को परमाणु बम बनाने से रोकने के साथ भारतीय जासूस सृष्टि चतुर्वेदी के एक्सट्रैक्शन की कहानी दिखाती है।

सलाकार का सबसे दिलचस्प पक्ष, जनरल जिया उल हक, उसके पोते, अजीत दयाल और सृष्टि चतुर्वेदी के बीच अतीत का कनेक्शन है। यह इस सीरीज का वो आधार है, जिस पर पूरी कहानी खड़ी की गई है।

सलाकार विजुअली खराब नहीं और ना ही अभिनय के लिहाज से बुरी है, कुछ मौकों को छोड़कर, मगर इसका स्क्रीनप्ले कई जगहों पर बेहद बचकाना और एकतरफा लगता है। जनरल जिया उल हक से लेकर अन्य पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों औ खुफिया तंत्र को बेवकूफाना दिखाया गया है। एक भारतीय जासूस उस देश में घुसा है, जहां कदम-कदम पर दुश्मन तैनात है, मगर किसी को उस पर शक ही नहीं होता। वो कहीं भी कुछ भी करके चला जाता है।

स्क्रीनप्ले में लेखकों की आरामतलबी और ब्रेनस्टॉर्मिंग की कमी साफ झलकती है। कुछ दृश्यों में ऐसा लगता है- या तो लेखक बेहद मासूम हैं या वो दर्शक को मासूम समझते हैं।

बानगी देखिए- अधीर दयाल पाकिस्तान के सबसे बड़े न्यूक्लियर साइंटिस्ट को शराब पिलाकर सबसे बड़ा राज उगलवा लेता है। अधीर दयाल हाई सिक्योरिटी जोन में स्थित न्यूक्लियर प्लांट की रेकी कर आता है। क्लाइमैक्स में सिर्फ एक स्थानीय व्यक्ति की मदद से संक्रमित पानी का टैंकर लेकर न्यूक्लियर प्लांट में घुस जाता है, जहां जनरल जिया उल हक की मौजूदगी में यह शुरू होने वाला है। इन सब दृश्यों में तनाव और संघर्ष एकतरफा है।

दुश्मन को अक्ल से इतना कमजोर दिखाया गया है कि सब कुछ फर्जी लगने लगता है। सबसे हास्यास्पद सीन तो क्लाइमैक्स का है, जब इस्लामाबाद से दुबई जाने वाले प्लेन में को-पायलट खुद अधीर दयाल निकलते हैं, जो मौनी रॉय के एक्सट्रैक्शन के लिए खुद वहां पहुंचे थे। मतलब कुछ भी!

कमोबेश संवाद भी कुछ ऐसे ही हैं। पाकिस्तानी सैन्य अफसर भारतीय जासूस की पिटाई करते हुए कहता है कि यह कोई क्रिकट मैच नहीं, जब इंडिया बार-बार पाकिस्तान की पिटाई करे। 1978 की कहानी में भारत-पाकिस्तान क्रिकेट को लेकर यह संवाद सीरीज की टाइमलाइन को ही हिलाकर रख देता है।

कैसा है कलाकारों का अभिनय?

जनरल जिया उल हक के किरदार में मुकेश ऋषि जंचते हैं। कुछ दृश्यों में उन्होंने किरदार के खौफ को कामयाबी के साथ उकेरा है, मगर कहीं-कहीं वो ओवर कर जाते हैं। आइबी अधिकारी अधीर दयाल के यंग वर्जन (1978) को नवीन कस्तूरिया ने निभाया है, जबकि उम्रदराज किरदार (2025) में पूर्णेंदु भट्टाचार्य हैं।

इस किरदार को जेम्स बॉन्ड की तर्ज पर रखा गया है, जिसे नवीन कस्तूरिया ने खांचे में रखने की पूरी कोशिश की है। मगर, जब पूरा स्क्रीनप्ले ही एकतरफा हो तो नवीन भी इसमें कितनी नवीनता ला पाएंगे।

भारतीय जासूस के रोल में मौनी रॉय टाइमपास लगी हैं। उनके किरदार में भावनात्मक गहराई की कमी है। इसक किरदार का कैरेक्टर ग्राफ भी ठीक से नहीं खींचा गया है। अन्य कलाकारों ने अपने-अपने हिस्से का काम ठीक किया है।

पाकिस्तानी कर्नल अशफाकउल्लाह के किरदार में सूर्या शर्मा प्रभावशाली लगे हैं। उनका किरदार अप्रत्याशितता को कामयाबी के साथ दिखाता है।

तकनीकी रूप से कैसी है सीरीज?

लेखन और निर्देशन के स्तर पर कमजोर सीरीज तकनीकी तौर पर प्रभावित करती है। खासकर, 1978 और 2025 के बीच का ट्रांजिशन बहुत दिलचस्प है।

आर्ट डिजाइन ने पाकिस्तान में स्थित दृश्यों को वास्तविकता के करीब रखने की पूरी कोशिश की है। भारत के सरकारी दफ्तरों में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीरें कथ्य को सामयिक बनाती हैं। कहानी कोई भी हो, जब तक दुश्मन ताकतवर ना दिखे, अंत संतोषजनक नहीं होता। सलाकार भी उसी कसक के साथ खत्म होती है।