मुंबई। 50 Years Of Sholay: साल 1975… देश इमरजेंसी से जूझ रहा था तो पर्दे पर जय-वीरू के साथ ठाकुर गब्बर सिंह से इंतकाम ले रहे थे। 1977 में इमरजेंसी की आग तो बुझ गई, मगर शोले सुलगते रहे। एक के बाद एक रिकॉर्ड बनते रहे।
किसी ने 10 तो किसी ने 20… किसी-किसी ने तो 50 बार यह फिल्म देखी, मगर दिल आज तक नहीं भरा। कोई सीन अचानक नजर के सामने आ जाए तो पूरा देखे बिना हटा नहीं जाता। सिनेमा से निकलकर भारत की सांस्कृतिक पहचान बनी शोले की यह दीवानगी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को विरासत में मिलती रही।
21वीं सदी के 25वें साल में शोले 15 अगस्त को 50 साल की हो जाएगी। कमाल यह कि फिल्म इस उम्र में भी जवान है और आज भी आउटडेटेड नहीं लगती है। मसाला फिल्में कैसे बननी चाहिए, जो क्लासिकल का दर्जा पा लें… शोले इसकी मास्टर क्लास है।
किरदारों के गढ़ने और कलाकारों के सांचों में ढलने तक, ढेरों कहानियां हैं, जो शोले के अस्तित्व में आने के सफर से जुड़ी हैं। इन कहानियों का अपना एक अलग संसार है। शोले की 50वीं सालगिरह पर कुछ ऐसी ही कहानियों की चर्चा यहां करेंगे। इनमें कुछ सुनी तो कुछ अनसुनी होंगी।
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जीरो से हीरो बनी थी शोले
2014 में जब शोले 3डी में रिलीज हुई थी तो सालों बाद साथ आये सलीम-जावेद की जोड़ी ने सीएनएन-आइबीएन को इंटरव्यू दिया, जिसमें उन्होंने फिल्म से जुड़े कई किस्सों के बारे में बताया।
15 अगस्त 1975 को शुक्रवार के दिन रिलीज होते ही शोले फ्लॉप हो गई थी। कुछ दिनों तक इसे दर्शक नहीं मिले थे, तब सलीम-जावेद ने ट्रेड का भरोसा जीतने के लिए एक ट्रेड मैगजीन में इश्तेहार देकर इसकी कमाई को लेकर चौंकाने वाला दावा किया था। जावेद बताते हैं-
उस वक्त की बड़ी हिट हाथी मेरे साथी ने 90 लाख रुपये का कारोबार हर टेरिटरी में किया था। इश्तेहार में सलीम-जावेद ने दावा किया कि उनकी फिल्म हर टेरिटरी में एक करोड़ रुपये का कारोबार करेगी। मगर, फिल्म ने इश्तेहार में किये गये दावे को झुठलाते हुए 10 रुपये की टिकट कीमत होने के बावजूद हर टेरिटरी में 2.50-3 करोड़ रुपये का कारोबार किया था।
आलोचकों ने की थी शोले के फ्लॉप होने की भविष्यवाणी
रिलीज के शुरुआती दिनों में आलोचकों ने फिल्म को जिन कसौटियों पर कस-कसकर तकरीबन मार ही डाला था, शोले ने उन सारी कसौटियों को गलत साबित करते हुए हर आलोचक की सिनेमाई समझ पर सवाल खड़े कर दिये।
रिव्यूज में फिल्म की आलोचना करते हुए लिखा गया था कि धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन और संजीव कुमार जैसे दिग्गज सितारों के सामने नये विलेन को खड़ा किया है। फिल्म में विधवा पुनर्विवाह की बात की गई हैं। और तो और, जय-मौसी जी के बीच संवाद के आकॉनिक सीन पर भी आलोतकों ने सवाल उठाये थे।
उनका कहना था कि जय दोस्त की सिफारिश करने के बजाय उसकी बुराइयां गिनाता है। यह तो खलनायकों वाला काम है। फिल्म कैसे चलेगी।
सलीम-जावेद बताते हैं कि एक ट्रेड मैगजीन ने तो शोले की रिलीज के बाद पहले बुधवार को आर्टिकल छापा था, जिसमें विस्तार से विश्लेषण किया गया था कि यह फिल्म सफल क्यों नहीं हो सकती?
इसमें कहा गया कि फिल्म के सारे इमोशंस नेगेटिव हैं। हिंसा से भरपूर है। विलेन की आवाज कमजोर है। फिल्म की कास्टिंग सही नहीं है। फिल्म का बेसिक आइडिया ही गलत है।

वैसे शोले को लेकर नेगेटिविटी का दौर फिल्म की शूटिंग के साथ ही शुरू हो गया था। निर्देशक रमेश सिप्पी ने फिल्म की शूटिंग बेंगलुरु के पास रामनगर इलाके में की थी, जहां शोले के रामगढ़ को क्रिएट किया गया था।
शूटिंग के दौरान इंडस्ट्री की एक जानी-मानी शख्सियत सेट पर पहुंची। उन्होंने लोकेशन देखने के बाद कहा कि बिल्कुल गलत जगह चुन ली है। इसे राजस्थान में बनना चाहिए था। यहां आ गये, जहां हरियाली ही हरियाली है।
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अमजद खान की किस्मत में था गब्बर सिंह का किरदार
वैसे तो शोले के सभी किरदार आइकॉनिक हैं, मगर गब्बर सिंह को जो शोहरत मिली, उसका कोई जोड़ नहीं। फिल्म का यह ऐसा किरदार था, जिसे हर कोई निभाना चाहता था। अमिताभ बच्चन से लेकर संजीव कुमार तक, गब्बर बनना चाहते थे। मगर, गब्बर बनना तो अमजद खान की किस्मत में लिखा था, जबकि वो दूर-दूर तक रेस में नहीं थे।
इस किरदार में डैनी डेंग्जोंग्पा को फाइनल किया गया था, मगर फिरोज खान की फिल्म के लिए कमिटमेंट के कारण डैनी ने फिल्म छोड़ दी थी। तब अफरा-तफरी मची कि किस कलाकारों को लें। ऐसे में सलीम खान की ओर से अजमद खान के नाम का सुझाव आया। इसके पीछे भी दिलचस्प कहानी है। जावेद बताते हैं –
”1963 में उन्होंने दिल्ली में आयोजित यूथ फेस्टिवल में अमजद खान को एक प्ले में देखा था। मुंबई आकर उन्होंने इसका जिक्र सलीम से किया कि उन्होंने जयंत के बेटे को देखा। वो अच्छा काम करता है।”
जावेद इस बात को भूल चुके थे, मगर ना जाने कैसे और क्यों, जब गब्बर के लिए कलाकार की तलाश शुरू हुई तो सलीम साहब को अमजद खान को लेकर कही जावेद अख्तर की बात याद आ गई। उन्हें फोन करके बुलाया गया और रमेश सिप्पी के दफ्तर के लॉन में उनका ऑडिशन हुआ। अमजद पास हुए और शोले को गब्बर मिल गया। जावेद कहते हैं, यह पूरी तरह किस्मत थी।
असली डाकू था गब्बर सिंह
सलीम-जावेद ने गब्बर सिंह जैसा किरदार आखिर गढ़ा कैसे? इस किरदार के चारित्रिक गुण-दोष कहां से आये? इसका जवाब सलीम खान देते हैं। 50 के दौर में गब्बर सिंह भिंड, मुरैना में सक्रिय असली डाकू था। वो परवर्ट किस्म का इंसान था। कुत्ते रखता था। पुलिस वालों को पकड़कर नाक काट लेता था ।
सलीम खान के पिता पुलिस अफसर थे। उनसे ही उसका नाम सुना था। शोले में वही गब्बर खलनायक के किरदार के लिए प्रेरणा बना था।
दिलीप कुमार को रहा पछतावा
फिल्म के सभी प्रमुख किरदारों की कास्टिंग को लेकर तमाम किस्से हैं। इनमें एक किस्सा यह भी है कि संजीव कुमार वाला ठाकुर का किरदार दिलीप कुमार को सजेस्ट किया गया था, मगर किन्हीं कारणों से दिलीप कुमार वो नहीं कर सके।
बाद में एक कार्यक्रम में सलीम खान ने दिलीप कुमार से ऐसे ही पूछ लिया कि अपने करियर में उन्हें फिल्में छोड़ने का अफसोस है? दिलीप साहब ने कहा- बहुत सारी हैं। बैजू बावरा, प्यासा, जंजीर और शोले।
- यह संयोग है कि शोले के ठाकुर से मिलता-जुलता किरदार उन्होंने सुभाष घई की 1986 की फिल्म कर्मा में निभाया था। फिल्म में दिलीप साहब के किरदार का एक नाम दादा ठाकुर भी था। उस फिल्म में गब्बर की जगह डॉ. डैंग बने अनुपम खेर ने ले ली थी, जबकि जय-वीरू की जगह अनिल कपूर, जैकी श्रॉफ और नसीरुद्दीन शाह आ गये थे।

विफल रही शोले का सीक्वल बनाने की कोशिश
बहुत कम लोग जानते हैं कि शोले की बेशुमार सफलता के बाद इसका सीक्वल बनाने की कोशिशें हुई थीं, मगर सलीम-जावेद के राजी ना होने की वजह से सीक्वल नहीं बन पाया। शोले का निर्माण जीपी सिप्पी ने किया था, जो निर्देशक रमेश सिप्पी के पिता थे।
शोले की रिलीज के कुछ वक्त बाद पिता-बेटे में दूरी आ गई और रमेश पिता से अलग हो गये। अपना प्रोडक्शन अलग करने के बाद जीपी सिप्पी ने एक बड़ी पार्टी दी, जिसमें उन्होंने सीक्वल की घोषणा की। इस पार्टी में उन्होंने लेखक सलीम-जावेद को भी बुलाया। जावेद बताते हैं कि हम नहीं गये, क्योंकि हमने रमेश सिप्पी के साथ काम किया था। हमारी वफादारी उनके साथ थी। हमारी वफादारी हमारी फिल्म के साथ थी।